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ताँ आ॒शिरं॑ पुरो॒ळाश॒मिन्द्रे॒मं सोमं॑ श्रीणीहि । रे॒वन्तं॒ हि त्वा॑ शृ॒णोमि॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tām̐ āśiram puroḻāśam indremaṁ somaṁ śrīṇīhi | revantaṁ hi tvā śṛṇomi ||

पद पाठ

तान् । आ॒ऽशिर॑म् । पु॒रो॒ळाश॑म् । इन्द्र॑ । इ॒मम् । सोम॑म् । श्री॒णी॒हि॒ । रे॒वन्त॑म् । हि । त्वा॒ । शृ॒णोमि॑ ॥ ८.२.११

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:2» मन्त्र:11 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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शिव शंकर शर्मा

भगवान् ही अतिशय धनी है, यह इससे प्रकाशित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (हे इन्द्र) हे सर्वद्रष्टा परमात्मन् ! (तान्) उन पूर्वोक्त वस्तुओं को और (आशिरम्) आशीर्वाद तथा (पुरोडाशम्) यज्ञार्थ सम्पादित वस्तु को तथा (इमम्+सोमम्) इस जगद्रूप सोम को (श्रीणीहि) स्व स्व सत्ता से मिश्रित कीजिये। अर्थात् इन पदार्थों को अपनी-२ शक्तियों से युक्त कीजिये। (हि) क्योंकि (त्वाम्) तुझको (रेवन्तम्) धनवान् (शृणोमि) सुनता हूँ ॥११॥
भावार्थभाषाः - वह जगदीश ही निखिल पदार्थों को मिश्रित कर अच्छी प्रकार उन्हें पका कार्य में परिणत कर रहा है। इस महान् कार्य को दूसरा कौन कर सकता, क्योंकि वही अतिशय धनी है ॥११॥
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आर्यमुनि

अब कर्मयोगी को पुरोडाश का देना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (तान्) उन रसों को और (आशिरं, पुरोडाशं) पय आदि से बने हुए पुरोडाशरूप (इमं, सोमं) इस शोभन भाग को (श्रीणीहि) ग्रहण करें (हि) क्योंकि (त्वां) आपको (रेवन्तं) ऐश्वर्य्यसम्पन्न (शृणोमि) सुनते हैं ॥११॥
भावार्थभाषाः - “पुरो दाश्यते दीयते इति पुरोडाशः”=जो पुरः=पहिले दाश्यते=दिया जाय, उसको “पुरोडाश” कहते हैं। याज्ञिक पुरुषों का कथन है कि हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न कर्मयोगिन् ! पय आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से बने हुए इस “पुरोडाश”=यज्ञशेष को आप ग्रहण करें । स्मरण रहे कि पुरोडाश को पहले देने का कारण यह है कि वह यज्ञ के हवनीय पदार्थों में सर्वोत्तम बनाया जाता है, इसलिये उसका सबसे पहले देने का विधान है ॥११॥
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शिव शंकर शर्मा

भगवानेवातिशयितो धनीत्यनया ध्वनयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! तान्=पूर्वोक्तान्। आशिरम्=आशीर्वादम्। पुरोडाशम्=पुरोऽग्रे दाश्यते दीयते यः स पुरोडास्तं पुरोडाशम्। इमं दृश्यमानम्। सोमम्=जगद्रूपं वस्तु च। श्रीणीहि=पाचय=स्वसत्तया मिश्रयेत्यर्थः। हि=यस्मात्। त्वा=त्वाम्। रेवन्तम्=धनवन्तं शृणोमि। अतस्त्वां प्रति प्रार्थना। एष संसारस्तव धनमस्त्यतोऽस्य रक्षापि तवाधीनास्ति। श्रीञ् पाके ॥११॥
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आर्यमुनि

अथ कर्मयोगिभ्यः पुरोडाशदानमुच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (तान्) तान् रसान् (आशिरं, पुरोडाशं) पय आदि पुरो दीयमानं च (इमं, सोमं) इमं शोभनभागं (श्रीणीहि) भुङ्क्ष्व (हि) यतः (त्वां) भवन्तं (रेवन्तं) ऐश्वर्य्यवन्तं (शृणोमि) तेन प्रसिद्धत्वात् शृणोमि ॥११॥